Shandil Trip: भारतीय राजनीति में परिवार का साथ होना कोई अनोखी बात नहीं। आज़ादी के बाद से अब तक छोटे से लेकर बड़े नेताओं तक, हर किसी ने कभी न कभी अपने परिजनों को साथ लेकर दौरे किए हैं। मंच साझा करने से लेकर विदेश यात्राओं तक — यह एक सामान्य परंपरा रही है। लेकिन जब बात डॉ. धनीराम शांडिल और उनके बेटे की आती है, तो अचानक यह विपक्ष के लिए बड़ा मुद्दा क्यों बन जाता है? क्या वास्तव में यह पारदर्शिता और लोकतंत्र की चिंता है, या फिर विपक्ष और विरोधियों का नया राजनीतिक हथियार?
दौरे में बेटे की मौजूदगी: परंपरा या नया राजनीतिक हथियार?

डॉ. शांडिल का कद हिमाचल की राजनीति में बड़ा है। उनका बेटा अगर किसी दौरे में साथ दिखाई देता है तो यह असामान्य क्यों माना जाए? कांग्रेस, बीजेपी और अन्य दलों की लंबी सूची है जहाँ नेताओं के बेटे-बेटियाँ साथ रहे हैं।
लेकिन इस बार विपक्ष और शांडिल के विरोधियों ने इसे “परिवारवाद” का नया चेहरा बताकर हवा दी है। सवाल यह है कि क्या यही मानक बीजेपी और अन्य दलों के लिए भी लागू होते हैं?
विपक्ष की रणनीति: परिवारवाद बनाम क्षेत्रीय राजनीति
पहला पहलू: विरोधियों की कोशिश है कि शांडिल परिवार की स्थानीय लोकप्रियता को कमजोर किया जाए और बेटे की संभावित राजनीतिक शुरुआत को विवादों में घेरा जाए।
दूसरा पहलू: इसे परिवारवाद का मुद्दा बनाकर जनता के बीच असंतोष का नैरेटिव खड़ा करना।
तीसरा पहलू: असल मुद्दों — बेरोज़गारी, महंगाई, आपदा प्रबंधन — से ध्यान हटाना।
Shandil Trip: सवाल उठाने वाले खुद भी परिवारवाद के हिस्सेदार

- यहाँ सबसे बड़ा विरोधाभास यही है। जो लोग आज शांडिल पर सवाल उठा रहे हैं, वही खुद इस राजनीति के हिस्सेदार रहे हैं।
- बीजेपी के कई बड़े नेता अपने परिवार को साथ लेकर विदेश दौरों पर जाते रहे हैं।
- गोवा के बीजेपी मंत्री मनोहर अजगांवकर ने पर्यटन प्रमोशन के नाम पर अपने परिवार को विदेशी दौरे पर साथ ले जाकर आलोचना झेली।
- कई मौकों पर बीजेपी सांसदों और मंत्रियों के परिवार सरकारी प्रतिनिधिमंडलों में शामिल हुए।
- केंद्र की मोदी कैबिनेट में भी कई मंत्री “राजनीतिक परिवारों” से आते हैं। राहुल गांधी ने लोकसभा में सीधे आरोप लगाया था कि “मोदी जी का पूरा मंत्रिमंडल डाइनैस्टी से भरा है।”
- तो सवाल यही है कि जब बीजेपी नेता खुद अपने परिवार को साथ ले जाएँ तो उसे “सांस्कृतिक/व्यक्तिगत” बताया जाता है, लेकिन अगर शांडिल का बेटा एक दौरे पर नज़र आए तो अचानक यह ‘नेपोटिज़्म’ कैसे बन जाता है?
Shandil Trip: जनता की नज़र से असली मुद्दे क्या हैं?
जनता के लिए सबसे बड़े सवाल हैं —
रोज़गार कहाँ है?
महंगाई क्यों बढ़ रही है?
हिमाचल में आपदा प्रबंधन क्यों विफल रहा?
ऐसे में यह बहस कि कौन अपने बेटे को साथ ले गया और कौन नहीं, जनता को शायद उतनी दिलचस्प न लगे। बल्कि जनता धीरे-धीरे समझ रही है कि यह मुद्दा असल कामकाज से ध्यान हटाने की चाल है।
Shandil Trip: निष्कर्ष
शांडिल के बेटे पर उठाए जा रहे सवाल राजनीति की पुरानी चाल लगते हैं। विपक्ष और बीजेपी दोनों ही परिवारवाद के हिस्सेदार हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि जब मुद्दा दूसरों का होता है तो उसे भ्रष्टाचार या नेपोटिज़्म कहा जाता है, और जब बात खुद की आती है तो उसे परंपरा, संस्कृति या पारिवारिक अधिकार का नाम दे दिया जाता है।
हिमाचल की जनता के लिए यह समझना ज़रूरी है कि यह लड़ाई न तो परिवारवाद की है और न ही पारदर्शिता की, बल्कि यह महज़ सियासत का दोहरा मापदंड है — जिसमें नेताओं को टारगेट करना ही असली मकसद है।
अब सवाल जनता के सामने है: क्या यह बहस हिमाचल के असली मुद्दों को पीछे धकेलने के लिए है, या फिर यह परिवारवाद की राजनीति पर चुनिंदा हमला है?