Nathuram Godse & Mahatma Gandhi (File Photo)

Nathuram Godse & Mahatma Gandhi: ऐतिहासिक व्यक्तित्वों का वर्तमान राजनीति में उपयोग या दुरुपयोग?

भारत का लोकतंत्र विचारधारा, धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक समरसता पर आधारित रहा है, लेकिन समय के साथ राजनीति ने अपने स्वयं के हितों के लिए ऐतिहासिक घटनाओं और व्यक्तित्वों का उपयोग करना शुरू कर दिया। गांधी और गोडसे (Nathuram Godse & Mahatma Gandhi) के नाम पर आधुनिक राजनीति में ऐसा ही देखने को मिल रहा है, जहाँ उनकी विचारधाराओं का सहारा लेकर लोगों को बांटने की कोशिश की जा रही है। यह विभाजन विशेष रूप से युवाओं पर आधारित है, जिनके पास इस विवाद के ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ को समझने के लिए पर्याप्त जानकारी नहीं है। आज के दौर में युवाओं का इस्तेमाल केवल चुनावी एजेंडे के लिए किया जा रहा है, जबकि उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे स्वयं इन मुद्दों पर विचार करें और आंख बंद करके राजनीतिक नेताओं के पीछे ना चलें।

Nathuram Godse & Mahatma Gandhi: एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

नाथूराम गोडसे, जिन्होंने 1948 में महात्मा गांधी की हत्या की, का मानना था कि गांधी के विचारों और नीतियों से भारतीय समाज कमजोर हो रहा था। गोडसे की असहमति गांधी के अहिंसा और धर्मनिरपेक्षता पर आधारित दृष्टिकोण से थी, जिसे उन्होंने विभाजन के दौरान खासतौर पर अस्वीकार किया। 15 नवंबर 1949 को उन्हें फांसी दी गई, लेकिन तब से गोडसे और गांधी दोनों ही भारतीय राजनीति में प्रतीकों के रूप में उपयोग हो रहे हैं। एक ओर गांधी को अहिंसा और समावेशिता के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, वहीं दूसरी ओर, गोडसे को राष्ट्रवाद के एक उग्र रूप के रूप में कुछ गुटों द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है।

Nathuram Godse & Mahatma Gandhi (File Photo)

राजनीति में Nathuram Godse & Mahatma Gandhi का उपयोग न्यायोचित?

वोट बैंक की राजनीति और ऐतिहासिक प्रतीकों का दोहन

वर्तमान राजनीति में गांधी और गोडसे (Nathuram Godse & Mahatma Gandhi) का उपयोग चुनावी लाभ के लिए किया जा रहा है। एक ओर गांधी का नाम लेकर सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की बातें की जाती हैं, ताकि समाज के विशेष वर्गों का समर्थन प्राप्त हो सके। वहीं गोडसे का नाम उन संगठनों द्वारा उपयोग किया जा रहा है, जो उग्र राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक पहचान के मुद्दों को उभारना चाहते हैं। यह साफ है कि गांधी-गोडसे विवाद का राजनीतिकरण सिर्फ चुनावी वोट बटोरने और लोगों में ध्रुवीकरण करने के लिए किया जा रहा है।

    यह राजनीतिक रूप से सही है?

    इस तरह के प्रतीकात्मक उपयोग से यह सवाल उठता है कि क्या राजनीतिक दलों द्वारा गांधी और गोडसे का नाम लेकर समाज में वैचारिक संघर्ष पैदा करना उचित है। राजनीतिक दलों का उद्देश्य अपने सिद्धांतों और कार्यों से जनता का विश्वास जीतना होना चाहिए, ना कि ऐतिहासिक विवादों का सहारा लेकर समाज में विभाजन को बढ़ावा देना। गांधी और गोडसे को अलग-अलग दृष्टिकोणों के साथ देखने से समाज में ध्रुवीकरण का खतरा बढ़ता है, जो हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरनाक हो सकता है।

      युवाओं पर प्रभाव: अज्ञानता और राजनीतिक दुरुपयोग

      1. इतिहास की सीमित जानकारी और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उपयोग

      आज के समय में बड़ी संख्या में युवा ऐसे हैं, जिन्होंने गांधी और गोडसे के विचारों का गहन अध्ययन नहीं किया है। उनके पास सीमित जानकारी है, जिसे राजनीतिक दल अपने हिसाब से प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार युवा वर्ग को एक विचारधारा के समर्थन में लाया जा सकता है, जो राजनीतिक दलों के एजेंडे को पूरा करती है। इतिहास के इस अंश को जाने बिना गोडसे या गांधी के समर्थन में आने वाले युवा राजनीति का साधन बनते जा रहे हैं।

      1. युवाओं के लिए एक चेतावनी: आँख बंद कर विश्वास ना करें

      युवाओं को यह समझने की आवश्यकता है कि किसी भी ऐतिहासिक या राजनीतिक मुद्दे को सिर्फ सोशल मीडिया या राजनीतिक नेताओं के दृष्टिकोण से ना देखें। किसी भी विचारधारा को अपनाने से पहले उसके ऐतिहासिक तथ्यों, संदर्भों और समाज पर उसके प्रभाव का विश्लेषण करना महत्वपूर्ण है। उन्हें समझना चाहिए कि नेताओं के व्यक्तिगत एजेंडे के बजाय उनके अपने विवेक का उपयोग करना चाहिए।

      समाज पर प्रभाव: ध्रुवीकरण और अस्थिरता

      1. वैचारिक संघर्ष और सामाजिक एकता पर खतरा

      गांधी-गोडसे विवाद का असर केवल चुनावी राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका प्रभाव समाज में भी देखा जा सकता है। एक ओर गांधी का समर्थन करने वाले लोग समावेशिता और सहिष्णुता की बात करते हैं, वहीं गोडसे के समर्थक उग्र राष्ट्रवाद का समर्थन करते हैं। इस ध्रुवीकरण का परिणाम यह होता है कि समाज के विभिन्न वर्गों में वैचारिक संघर्ष पैदा होता है, जो सामाजिक एकता को कमजोर करता है।

      1. सांस्कृतिक और धार्मिक मुद्दों पर प्रभाव

      गांधी और गोडसे के नाम पर राजनीति में उठ रहे मुद्दे धर्म और संस्कृति के संदर्भ में भी चर्चा का विषय बने हुए हैं। गोडसे का समर्थन करने वाले लोग उसे सांस्कृतिक अस्मिता का प्रतीक मानते हैं, जबकि गांधी का नाम धर्मनिरपेक्षता का समर्थन करता है। इससे समाज में सांप्रदायिक विभाजन का खतरा बढ़ता है और सामाजिक समरसता को नुकसान पहुंचता है।

      एक सतर्क समाज की आवश्यकता

      नाथूराम गोडसे की फांसी और गांधी पर आधारित वर्तमान राजनीति भारतीय समाज और युवाओं के लिए एक सोचने का अवसर है। यह समय की मांग है कि समाज, विशेष रूप से युवा वर्ग, किसी भी राजनीतिक नेता या विचारधारा का आँख बंद करके अनुसरण करने के बजाय उनके विचारों और उद्देश्यों का गहन विश्लेषण करें।

      हमारे देश का लोकतंत्र विचारधारा, सहिष्णुता और समावेशिता पर आधारित है। गांधी और गोडसे की विचारधाराओं पर आधारित यह बहस आज भी समाज के सामने एक चुनौती है। लेकिन यह जरूरी है कि लोग इतिहास के इन विवादों का चुनावी राजनीति में इस्तेमाल न करें और ना ही उनके नाम पर समाज में विभाजन करें।

      Ashish Azad

      आज़ाद पत्रकार.कॉम, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय जानकारियों और उनके विश्लेषण को समझने का बेहतर मंच है। किसी भी खबर के हरेक पहलू को जानने के लिए जनता को प्रोत्साहित करना और उनमे जागरूकता पैदा करना।

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