Bihar digital verification

Bihar digital verification: लोकतंत्र के नाम पर ‘डिजिटल सफाई’ या सियासी रणनीति?

Bihar digital verification: भारत में लोकतंत्र की सबसे बुनियादी इकाई क्या है? न तो संसद, न विधानसभाएं — बल्कि एक-एक मतदाता, जो हर पांच साल में अपने मत से सत्ता की दिशा तय करता है। लेकिन जब उसी मतदाता के अधिकार और अस्तित्व पर सवाल खड़े होने लगें, तो यह केवल प्रशासनिक चूक नहीं रहती, बल्कि संवैधानिक संकट बन जाती है।

बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण (वोटर वेरिफिकेशन) को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई अब एक राजनीतिक और संवैधानिक परीक्षा बन चुकी है। सवाल केवल यह नहीं कि कितने नाम काटे गए, बल्कि यह भी है कि किसके और क्यों काटे गए?

Bihar digital verification: प्रक्रिया पारदर्शिता से अधिक, गुप्तता में क्यों डूबी रही?

मार्च से जून 2025 तक बिहार में चुनाव आयोग ने वोटर लिस्ट शुद्धिकरण की प्रक्रिया चलाई। इसका उद्देश्य था— डुप्लिकेट, मृत और स्थानांतरित मतदाताओं के नाम हटाना और नए योग्य नागरिकों को जोड़ना।

Bihar elections 2025: लेकिन हकीकत में हुआ क्या?

लाखों वोटरों को पता ही नहीं चला कि उनके नाम हटाए जा चुके हैं। https://aazadpatrkar.com/bihar-election-2025/
जिनके पास आधार, वोटर ID और सरकारी पहचान पत्र थे, उन्हें भी ‘संदिग्ध’ घोषित कर दिया गया।
किसी को नोटिस नहीं भेजा गया, न ही हटाए जाने के खिलाफ अपील करने का कोई व्यावहारिक रास्ता दिया गया।

राजनीतिक विश्लेषण:

यह प्रक्रिया “डिजिटल वेरिफिकेशन” के नाम पर जनता से संवादहीनता का उदाहरण बन गई। BLO स्तर पर दबाव, स्थानीय प्रशासन की राजनीतिक झुकाव, और भाजपा बनाम विपक्ष के सत्ता समीकरण ने इस प्रक्रिया को एक निष्पक्ष अभियान की जगह राजनीतिक हथियार में बदल दिया।

सुप्रीम कोर्ट का रुख: आयोग की निष्पक्षता पर सबसे बड़ा सवाल

  • सुप्रीम कोर्ट ने मामले को गंभीरता से लिया और सीधे तौर पर चुनाव आयोग से सवाल पूछे:

वोटर को नाम हटाने से पहले सूचना क्यों नहीं दी गई?
क्या वेरिफिकेशन की पूरी प्रक्रिया RTI और संविधान के सिद्धांतों के अनुसार थी?
क्या किसी खास वर्ग को टारगेट किया गया?

राजनीतिक संकेत:
सुप्रीम कोर्ट का दखल यह दर्शाता है कि मामला केवल तकनीकी त्रुटियों का नहीं है, बल्कि इसमें चुनाव आयोग की संस्थागत साख भी दांव पर है।
यह वही सुप्रीम कोर्ट है, जिसने चंडीगढ़ मेयर चुनाव में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के उल्लंघन पर तीखी टिप्पणी की थी — और अब बिहार में वही पैटर्न दोहराता नजर आ रहा है।

चुनाव आयोग की सफाई: ‘प्रक्रिया नियमित थी’, लेकिन जवाबों में गहराई नहीं

आयोग का कहना है कि:

  • यह एक रूटीन प्रोसेस था
  • फॉर्म 6 और 8 के ज़रिए नागरिक नाम जुड़वा सकते थे
  • तकनीक की मदद से डुप्लिकेट और फर्जी एंट्रीज़ हटाई गईं
  • लेकिन क्या आयोग यह बता सका कि…

लाखों नाम कैसे एक साथ हट गए?
सूचना का माध्यम क्या था?
ज़मीनी स्तर पर BLO की जवाबदेही क्यों नहीं तय हुई?

Bihar digital verification: राजनीतिक विश्लेषण

आयोग का रवैया संवैधानिक जवाबदेही से अधिक तकनीकी बचाव वाला नजर आता है। यदि यह प्रक्रिया निष्पक्ष थी, तो सूचना और संवाद में पारदर्शिता क्यों नहीं थी?
यह सवाल आयोग की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को केंद्र में लाता है — जो पिछले कुछ वर्षों से भाजपा सरकार के साथ उसके संबंधों को लेकर विपक्ष द्वारा बार-बार उठाया जाता रहा है।

सियासी निहितार्थ: वोटर की पहचान नहीं, उसकी विचारधारा महत्वपूर्ण?
बिहार में जहां जातीय, धार्मिक और क्षेत्रीय पहचान पर वोटिंग होती है, वहां वोटर लिस्ट से नाम हटाना सिर्फ तकनीकी काम नहीं, बल्कि सियासी गणित का पुनर्लेखन है।

क्या ग्रामीण, दलित और अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में नाम ज्यादा हटाए गए?

क्या यह 2025 के अंत में संभावित विधानसभा चुनाव के पहले ‘फेवरेबल इलेक्टोरेट’ बनाने की रणनीति है?
क्या मतदाता की विचारधारा के आधार पर पहचान और हिस्सेदारी तय की जा रही है?

विश्लेषण:
यह सब कुछ चुनावी सोशल इंजीनियरिंग की ओर इशारा करता है — जहां वोट बैंक को कागज़ों में ही कमजोर किया जा रहा है।
अगर यह रुझान देशव्यापी बना, तो यह ‘फ्री एंड फेयर इलेक्शन’ की अवधारणा पर सीधा हमला है।

Bihar elections 2025: बड़े सवाल और लोकतंत्र की परीक्षा

क्या चुनाव आयोग निष्पक्ष बना हुआ है?

क्या सुप्रीम कोर्ट इस मामले को केवल ‘प्रक्रिया की खामी’ तक सीमित रखेगा या ‘राजनीतिक प्रभाव’ भी जांचेगा?
क्या यह केवल बिहार का मुद्दा है, या भारत की समूची चुनावी प्रणाली का खतरे का संकेत?

राजनीतिक विश्लेषण:

यह मामला भारत में संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता और लोकतंत्र के संचालन तंत्र की शुचिता से जुड़ा हुआ है।
अगर कोर्ट ने आयोग को सख्ती से जवाबदेह ठहराया, तो यह आगामी लोकसभा चुनाव 2029 के लिए भी टेम्पलेट सेट कर सकता है।

Bihar digital verification: वोटर लिस्ट से नाम हटाना आसान है, लेकिन भरोसा दोबारा जोड़ना मुश्किल

बिहार में वोटर वेरिफिकेशन का यह विवाद एक सतही प्रशासनिक मुद्दा नहीं है। यह उस लोकतांत्रिक मूल भावना से टकराता है, जिसमें हर नागरिक को न केवल वोट देने का अधिकार है, बल्कि उस अधिकार की संरक्षा का विश्वास भी होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का असर बिहार तक सीमित नहीं रहेगा। यह देश के लोकतंत्र की संरचना, संस्थाओं की विश्वसनीयता और मतदाता के अधिकारों की दिशा तय करेगा।

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