Justice Khanna and Indira Gandhi (File Photos)

Justice Khanna को Indira Gandhi ने क्यों नहीं बनने दिया था CJI?

Justice Khanna vs Indira Gandhi: भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में न्यायपालिका के स्वतंत्र अस्तित्व और उसकी निष्पक्षता की रक्षा के संघर्ष की एक ऐसी कहानी है, जो राजनीति और न्याय की शक्तियों के बीच तनावपूर्ण संबंधों को उजागर करती है। यह कहानी है न्यायमूर्ति हंस राज खन्ना की, जिन्हें न्यायमूर्ति एचआर खन्ना के नाम से जाना जाता है। 1970 के दशक में, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया, तब न्यायपालिका के लिए एक बड़ा संकट उत्पन्न हुआ था।

इसी समय न्यायमूर्ति खन्ना ने अपने न्यायप्रिय सिद्धांतों को लेकर जो ऐतिहासिक निर्णय लिया, उसने भारतीय न्यायपालिका को एक नई दिशा और भारतीय राजनीति को एक नया सन्देश दिया। हालांकि, इसके परिणामस्वरूप इंदिरा गांधी सरकार ने उन्हें भारत का प्रधान न्यायाधीश बनाने से इनकार करते हुए उनके कनिष्ठ न्यायाधीश एमएच बेग को सीजेआई नियुक्त कर दिया।

Justice Khanna: एक साहसी असहमति का प्रतीक

जस्टिस एचआर खन्ना का नाम आज भी भारतीय न्यायपालिका में न्यायिक स्वतंत्रता की अवधारणा के लिए एक आदर्श के रूप में लिया जाता है। 1976 में, जब ‘एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला’ मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आया, तब उन्होंने अकेले सरकार की तानाशाही प्रवृत्तियों के विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने इमरजेंसी के दौरान नागरिक अधिकारों के हनन के खिलाफ ऐतिहासिक असहमति जताते हुए कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोकतंत्र का संरक्षण सर्वोपरि है, चाहे परिस्थिति कोई भी हो। अन्य चार न्यायाधीशों ने जहां सरकार का समर्थन किया, वहीं जस्टिस खन्ना ने यह स्पष्ट संदेश दिया कि न्यायपालिका का कार्य नागरिक अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा करना है।

न्यायपालिका और राजनीति के बीच तनाव: सीजेआई नियुक्ति विवाद

1977 में, Justice Khanna की वरिष्ठता के बावजूद, इंदिरा गांधी सरकार ने उन्हें प्रधान न्यायाधीश नियुक्त नहीं किया और उनके स्थान पर एमएच बेग को सीजेआई बना दिया। यह कदम केवल न्यायमूर्ति खन्ना की असहमति को लेकर सरकार की नाराजगी को दर्शाने के लिए नहीं, बल्कि न्यायपालिका को सरकारी दबाव में लाने का एक राजनीतिक प्रयास भी था। यह निर्णय इंदिरा गांधी के तानाशाही स्वरूप को उजागर करता है, जहां न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर खुला आघात किया गया। इस राजनीतिक हस्तक्षेप के विरोध में, जस्टिस खन्ना ने सर्वोच्च न्यायालय से इस्तीफा दे दिया, जो उनके आदर्शों और न्यायपालिका की गरिमा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

इस निर्णय का प्रभाव और न्यायपालिका में हुए बदलाव

Justice Khanna के इस्तीफे ने भारतीय लोकतंत्र को यह अहसास कराया कि न्यायपालिका को सरकार से स्वतंत्र रहना चाहिए। उनके इस कदम से न्यायपालिका में स्वतंत्रता की भावना को बल मिला और यह संदेश दिया गया कि न्यायिक मूल्यों पर राजनीति का हस्तक्षेप अस्वीकार्य है। उनके त्याग ने न केवल उनके अनुयायियों में आदर्शवाद की भावना को प्रेरित किया, बल्कि इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि न्यायपालिका को अपने स्वतंत्र निर्णयों में किसी भी राजनीतिक दबाव से प्रभावित नहीं होना चाहिए। जस्टिस खन्ना की असहमति और उनकी नियुक्ति की अनदेखी ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता के समर्थन में बड़े पैमाने पर जनसमर्थन को प्रेरित किया और न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता की मांग को भी बल मिला।

CJI Sanjiv Khanna का पारिवारिक संबंध

जस्टिस खन्ना के इस संघर्ष का असर वर्तमान समय में भी देखा जा सकता है। यह उल्लेखनीय है कि वर्तमान सीजेआई, न्यायमूर्ति खन्ना के भतीजे हैं, जिन्होंने अपने चाचा के आदर्शों को अपने कार्यों में आगे बढ़ाया है। उनके इस पारिवारिक संबंध ने न्यायपालिका में एक प्रेरणा का काम किया है और जस्टिस खन्ना के योगदान की अमूल्य विरासत को नई पीढ़ी में संजोया है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की मजबूती

Justice HR Khanna का जीवन हमें यह सिखाता है कि न्यायिक स्वतंत्रता लोकतंत्र का आधार है, जिसे राजनीतिक हस्तक्षेप से अलग रखना आवश्यक है। उनके निर्णय ने न केवल उनके समय में, बल्कि आने वाले वर्षों में भी न्यायपालिका के लिए स्वतंत्रता के नए मानदंड स्थापित किए। इंदिरा गांधी सरकार के उस विवादास्पद निर्णय ने भारतीय न्यायपालिका को आत्मचिंतन का अवसर दिया और यह सुनिश्चित किया कि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। जस्टिस खन्ना की यह कहानी आज भी उन सभी लोगों के लिए प्रेरणा है जो न्याय, स्वतंत्रता और लोकतंत्र के आदर्शों को सजीव रखते हैं।

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